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एक सवाल ?

सृजन
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savalSocial नेटवर्किंग वेबसाईट (फेसबुक/ट्विटर/अन्य) ने एक अच्छा प्लेटफार्म उपलब्ध कराया अपने विचारो को अपने स्वजनों , मित्रो के साथ साँझा करने के लिए, इसके माध्यम से कई मशहूर और बुद्धिजीवी लोगो से व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का अवसर भी मिलता ही रहता है , पर वर्तमान में अगर देखे तो ऐसा लगता है मानो यह कोई सोशल प्लेटफार्म ना होकर कोई “शब्द रण मैदान” या शब्द क्रांतिवीरो का अड्डा मात्र है।

आखिर हम क्या सोच कर गाहे बगाहे इन वेबसाईट के माध्यम से इतना रोष और भड़ास जाहिर करते रहते है.. क्या वाकई हमारे मन में इतना करने की क्षमता है की आप एक आन्दोलन के अग्रज बन उसकी मशाल थाम कर निकल पड़े सड़कों पर.. उदाहरण के रूप में हमारे सामने अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, और भी कई महानुभाव है जिन्होंने क्रांति का बिगुल किसी बुक पर नहीं फूंका बल्कि आगे आकर अपना सर्वस्व झोंक कर एक आन्दोलन को दिशा प्रदान की और एक सशक्त प्लेटफार्म खड़ा किया।

इस में कोई दो राय नहीं की इन आन्दोलनों के दौरान प्रचार प्रसार का एक अच्छा माध्यम यह शोशल वेबसाईट साबित हुई है इन आंदोलनों के दौरान, पर क्या होता है फेसबुक या ट्विटर पर देखियें आपके मित्रो की संख्या और उसके सामने आपके विचारो को पसंद करने वालो की संख्या …आपको मिलने वाले समर्थन की संख्या जिन लोगो ने आपके पोस्ट को पसंद किया या उस पर अपनी सहमती या राय प्रदान की है उनमे से कितने लोग वास्तविकता में आपके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार होंगे .. ?

कुछ दिन पूर्व जब आमिर खान का नया शो शुरू हुआ ..प्रथम प्रस्तुति (कन्या भ्रूण हत्या ) के बाद फेसबुक और ट्विटर पर आई क्रांति को देख कर ऐसा लगा की मानो अब तो भारत तभी सांस लेगा जब तक इस समस्या को जड़ से ना उखाड़ दे पर क्या हुआ उस क्रांति का हश्र, १ या २ सप्ताह के बाद तो कई लोग भूल ही गए .. कोई शोर नहीं ..

क्यों.. क्या आज हमारे सामने इस समस्या से बड़ी समस्या खड़ी हो गई है ? नहीं …आज के समय में हमारे सामने कई समस्यों ने अपना मुंह खोल रखा है और हम कही ना कही अपना ध्यान मुद्दों के बजाय बस कुछ शब्द लिख कर इतिश्री करना और उन पर कुछ पसंद के वोट और चंद वाह-वाही तक ही सिमित होते जा रहे है।

एक ताजा उदाहरण : विगत कई दिनों से राष्ट्रपति चुनाव का प्रचार-प्रसार इन वेबसाईट पर किया जा रहा है .. प्रतिदिन कम से कम १०० या इससे भी अधिक पोस्ट इसी विषय को लेकर होते है , इन सब बातों का क्या मतलब है आम जनता से जो उस निर्वाचन का हिस्सा ही नहीं है , दूसरा अगर इसकी बजाय इस व्यवस्था को लेकर अपना विरोध दर्ज करते तो शायद ज्यादा उचित होता की एक राष्ट्रपति जो इस देश का सर्वोच्य नागरिक होता है उसको चुनने का अधिकार उस देश की जनता को ही नहीं है।

किसी महापुरुष ने सत्य ही कहा है : क्रांति का उदय सदा पीड़ितों के हृदय एवं त्रस्त व्यक्तियों के अन्तःकरण में हुआ करता है।

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